विभीषिका से आहत शिक्षा भारतीय दर्शन से फिर उठ खड़ी होगी ………

व्यक्ति का दुर्जन के साथ रहना भीषण विनाशक होता है। बुद्धि विशाल, कसी हुई, कुशाग्र व तेजस्वी होनी चाहिए। जब हम अपने छात्र को बुद्धि के विकास की जगह उपकरणों की विलासिता परोसते हैं तो उसकी मेधा गहराई को नहीं छू पाती है। व्यक्ति के क्रिया के अहंकार के साथ कर्ता व भोक्ता भाव जुड़ा रहने से अपेक्षित परिणाम नहीं निकलते हैं……

शिक्षा तात्विक शास्त्रीय ज्ञान की सनातनी आधार शिला पर खड़ी होकर क्रिया आधारित हो। सूक्ष्म विश्व वाह्यजगत व वृहदविश्व अन्तःजगत का व्यापार है।मानव का पूर्ण जीवन अन्तःकरण से संचालित होता है।अन्तःकरण के साधन ज्ञानार्जन के यंत्र हैं।अतः इसके समस्त व्यवहार पुनीत होने चाहिए।स्पर्शीन्द्रीय, श्रवणइन्द्रिय, घ्राणइन्द्रिय, स्वादइन्द्रिय व दर्शनइन्द्रिय को मन, बुद्धि, अहंकार व चित्त के संयमीकरण से अनुशासित करना चाहिए। संकल्पनात्मक ज्ञान को दैनिक व्यवहार में उतार कर जीवन वृत्तियों में आए द्वंद्वों को सुलझाना चाहिए। मनोविज्ञान अन्तःकरण का विज्ञान है और कर्मेन्द्रियाँ व ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञानार्जन के साधन हैं………..प्रो. अमर सिंह

मन सर्वदा द्वंद्व में रहता है व उत्तेजना, अशांत व चंचलता से सोचता है जो ज्ञानार्जन में बाधक है। सुख-दुःख, अच्छा-बुरा व हर्ष-शोक, ये सब मन के विषय हैं। मन एक सेकंड में 300 अलग अलग जगह जाकर लौट आता है। हम सब सूक्ष्म जगत में अवयवों से अनुभव करते हैं। मनोगम्य विश्व/ विषय को जानना ही मनोविज्ञान है। मन को संकल्पित व अनासक्त बनाकर ज्ञान अधिगम करने हेतु आवश्यक अनुशासन है। अंतःकरण मनुष्य विषेश्य है। मन के अनुसार करने को मिले तो उसे स्वतंत्रता कहते हैं। योग मनुष्य के चंचल मन व अस्थिर बुद्धि को नियमित करता है, अनुशासित करता है और व्यर्थ भटकने से नियंत्रित करता है। छात्रों की मनःस्थिति, एकात्म चित्तबद्धता, विषय की एकाग्रता, इंद्रियनिग्रह व शांत मनःस्थिति बनाना सही शिक्षा का अंतिम उद्देश्य है। अविकसित मन बुद्धि को कलुषित कर समस्याएं ही पैदा करता है।

हम अपनी बुद्धि से संश्लेषण, विश्लेषण व विवेचन करके ही ज्ञानार्जन करते हैं। बुद्धि ग्रहणशील बने, पात्रता बढ़ाए और सामयिक प्रश्नों का समाधान का कारण बने। चर्म चक्षु शिक्षक को मन के चक्षु मैच का पुनः प्रसारण करते हैं। बुद्धि को कसा न जाए तो दो लीटर के वर्तन में सिर्फ़ दो सौ ग्राम ही समाता है। छेद वाला बुद्धि का पात्र भी नहीं होना चाहिए। प्राप्त ज्ञान का धुंधला हो जाना भी कुपात्रता होती है।
असंयमित मन वाले शरीर की बुद्धि पाठ को संपूर्णता में न समझकर विषय को आधी अधूरी अभिव्यक्ति ही दे पाती है। बिना जबरदस्त धारणाशक्ति के ज्ञानार्जन नहीं हो पाता है। पात्र स्वच्छ चाहिए अन्यथा उसमें दूध डालते ही फट जाएगा और परिणाम अच्छे नहीं आएंगे। व्यक्ति का दुर्जन के साथ रहना भीषण विनाशक होता है। बुद्धि विशाल, कसी हुई, कुशाग्र व तेजस्वी होनी चाहिए। जब हम अपने छात्र को बुद्धि के विकास की जगह उपकरणों की विलासिता परोसते हैं तो उसकी मेधा गहराई को नहीं छू पाती है। व्यक्ति के क्रिया के अहंकार के साथ कर्ता व भोक्ता भाव जुड़ा रहने से अपेक्षित परिणाम नहीं निकलते हैं।

हमारा चित्त हमारी संस्कार भूमि है। संस्कार परत दर परत हमारे शरीर में जमते चले जाते हैं। सभी भूतों के हृदय प्रदेश में ईश्वरीय आत्मतत्व का वास होता है। इसी को जानना आत्म साक्षात्कार ब्रह्म कहते हैं। हमारा ईश्वर से संबंध एकात्मकता का है। आत्मतत्व को जानना ही शिक्षा का उद्देश्य है। व्यक्तित्व में आत्मतत्व के विकसित होने की प्रक्रिया 16 वर्ष तक ही संचालित रहती है। हमारे अंतःकरण का विकास ही साध्य है। दर्शन व मनोविज्ञान हमारी शिक्षा के साध्य हैं।वास्तविक शिक्षा ज्ञान की परम्परा को आत्मसात करना है।

मनुष्य का ज्ञान उसका सूक्ष्म शरीर है, इसमें छात्र व शिक्षक का शरीर जुड़ना चाहिए। जब तक छात्र व शिक्षक आत्मिक नहीं होते, तब तक ज्ञान परम्परा शरीर में समाहित होकर गहरी नहीं बैठती है। मेरा शिष्य मेरे से सवाया हो एवं द्वेष रहित हो, हर अच्छे गुरू की ऐसी ही मिन्नत रहती है और ऐसी ही कामना हमेशा फलीभूत होती है। आचार्य की निष्ठा के साथ शिष्य की आत्मनिष्ठा का एकीकरण ही शिक्षा है। सेवावृत्ति की तत्परता चाहिए अन्यथा अपात्रता विकसित होगी। विद्या बिना विनय के विकसित नहीं होती है। आचार्य व छात्र का ज्ञान- निष्ठा से व्यापार करना ही ज्ञान परम्परा को समृद्ध करना है। शिक्षक को छात्र के प्रति ज्ञानपरायण व सेवापरायण होना चाहिए, यही विद्या क्षेत्र का विषय है। शिक्षा मनोविज्ञान ऐसा न बने कि ज्ञान प्राप्ति में बाधक बने। ये सूक्ष्म जगत का मामला है। स्थूल को प्रमाण की आवश्यकता होती है। मनोविज्ञान के विभिन्न आयाम हैं। ज्ञानार्जन हमारा आत्मिक आधार बने। बिना श्रद्धा पर टिका जीवन दर्शन निष्फल रहता है।

आत्मविश्वास के साथ भारतीय दर्शन की पुनः स्थापना होनी चाहिए। हम सब तपश्चर्या अपनाएं। श्रद्धा बुद्धि का अनुष्ठान है। विद्या के समान कोई चक्षु नहीं है। पुरुषार्थ का उद्देश्य आत्म उत्कर्ष की प्राप्ति करना है। हम सभी भाग्यवान हैं कि हम परिवर्तन के कालखंड में हैं। ज्ञान संपदा के आधार पर सभी विपत्तियों का निराकरण संभव है।

मन, बुद्धि, अहंकार व चित्त हमारे अन्तःकरण चार अहंकारी तत्व हैं। ये समवेत रूप में चित्त ही हैं। अहंकार दायित्व बोध में बाधक है। चित्त में संस्कारों की परतें जमती रहती हैं। विभिन्न शास्त्र अन्तःकरण की शुचिता पर बल देते हैं। शरीर के व्यापारों को समझने के लिए सूक्ष्म तत्व यथा चेतन तत्व या आत्म तत्व को समझना जरूरी है। आत्मतत्व की अति सक्रियता अहंकार को जन्म देती है। स्वरूप का अनुभव ही अहंकार है। विधायक या कर्ता का बोध ही अहंकार है। निमित्त बनने का भाव ही अहंकार है। अहंकार को मारना नहीं वरन विधायक के रूप में लेना चाहिए।विनम्रता ब्रह्म का स्वरूप है।अहंकार अभिमान व गर्व के रूप में आता है। ज्ञान का अहम सबको विधायक के रूप में होना चाहिए। इससे विनम्रता आती है। इंद्रियों के सभी संस्कार, संस्कृत, असंस्कृत, संस्कार-कुसंस्कार चित्त पर पड़कर संग्रह होते हैं। संस्कारों से संस्कारित चित्त में परमात्मा का वास होता है।

चेतन तत्व प्रकृति से बने हैं। मन में द्वंद्व पैदा करता है, संकल्प- विकल्प करता है और यही से अहंकार बुद्धि आती है। सत्य, असत्य, सुख, दुख, मान, अपमान, राग, द्वेष, रुचि, अरुचि सब मन के स्तर पर होते हैं। निश्चयात्मक बुद्धि निर्णय करती है और सत्य असत्य का विवेकीकरण भी।

क्रिया को करने वाला चाहिए। जो कर्म करेगा, वही उसका फल भोगेगा। क्रिया के लिए अहम आवश्यक है। हम सब क्रिया के लिए ब्रह्मा की ओर से नियुक्त हैं। शिक्षक के आचरण व विद्यामंदिर के परिवेश में विद्यार्थी सीखते हैं। बुद्धि का विकास शिशु अवस्था में ही हो जाता है, वह भी अधिकांश छः साल तक। शिक्षा संस्कार आधारित होनी चाहिए। संश्लेषण, विश्लेषण, निरीक्षण व परीक्षण बुद्धि के साधन हैं, भौतिक उपकरण नहीं। कार्मिक बुद्धि कुशाग्र व तेजस्वी होती है। बच्चों को स्वयं न सीखने देना बहुत बड़ा अन्याय व बहुत घातक है।

शिशुवाटिका में क्रिया अनुभव व प्रेरणा आधारित शिक्षा 70% हो तथा 30 % शिक्षा पुस्तक आधारित हो। सेवा, सत्संग व स्वाध्याय कौमार्य अवस्था में ही शुरू होने चाहिए। स्वतंत्र विचार विकसित करने की यही उम्र है। इसी उम्र में बच्चों को दायित्व बोध सिखाकर उन्हें धर्म संस्कृति से परिचय करा देना अभिप्सित है। शिक्षा का मशीनीकरण न हो, यह व्यक्ति को जीवंत बनाए। मन शांत व चित्त एकाग्र हो गया तो सब उपलब्ध हो जाएगा। भारतीय शिक्षाशास्त्र दर्शन ही आत्मज्ञान के मूल में है। दर्शन का संबंध आत्म साक्षात्कार से है। हृदय की गहराइयों में अनुभूति ही दर्शन है। बुद्धि आधारित विचारधारा का जीव, जगत, जगदीश, इन तीनों का अंतः संबंध है। इसी विचारधारा को दर्शन कहते हैं। शिक्षा ज्ञान की व्यवस्था है सिर्फ तब जब हम इसके मूल में जाकर विचार करते हैं। हमें पारिभाषिक शब्दों से अनभिज्ञ नहीं रहना चाहिए। आचार्य निर्माण में इन सब को समाहित करना चाहिए। वही ही तो वाहक है इन सभी अच्छाइयों का।

पश्चिम में बुद्धि शिक्षा का अल्टीमेट पैरामीटर है। बुद्धि से परे अनुभूति की बात होती है। बुद्धि के स्तर पर निरूपण शास्त्र में होता है। शास्त्रों के लिए प्रमाण अनुभूति है। वेद साक्षात प्रामाणिक हैं। पंचकोश का विकास होता है, पर शारीरिक, मानसिक व आत्मिक शुद्धि से। भारतीय दर्शन को कक्षा कक्ष में ले जाना जीव जगत व जगदीश्वर के अंतर्संबंध को परिभाषित करता है। हमारा भारतीय दर्शन जीवन दृष्टि पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती है। कंटेंट में कहानी, निबंध, कविता सब भारतीय होना चाहिए। प्रशिक्षण अभिधारणा आधारित होने चाहिए। पद्धतियों में बदलने की जरूरत है। पढ़ना पढ़ाना तो दो स्वतंत्र क्रियाएं नहीं हैं। पढ़ना प्रेरक रूप है। छात्र को सीखने का वातावरण प्रदान करना शिक्षक का दायित्व है। प्रकृति के साथ संबंध निर्माण करना एवं वृक्ष सिंचन शकुंतला के लिए सहोदर की सेवा करने जैसा ही है जबकि दुष्यंत कहता है कि वह पसीना बहाकर काम कर रही है कोमलांगी होकर; यह सब कण्व को यह नहीं कराना चाहिए था।

सारी चीजें धीरे-धीरे प्रवेशित कराना चाहिए शिष्य में। भारत जिंदा शिक्षा पद्धति है।हमारी शिक्षा पद्धति यूनिफॉर्म है, यह यांत्रिक बन गया है। मशीनी सांचे में जिंदा आदमी को फिट करना बहुत कठिन है। सत्य, धर्म, कष्ट के साथ दुख का भाव मिला है।हम सब श्रम की प्रतिष्ठा स्थापित करने में असफल रहे हैं। बच्चे घर से, स्कूल से, नजर से पर्यावरण से जुड़ते ही नहीं है। यह श्रम का प्रतिकार है, बेइज्जती है। बड़े लोग श्रम करेंगे तो छोटे अपने आप करेंगे। ज्ञान व सद्गुण को अगर हम श्रेष्ठता से प्रतिष्ठित कर सकें तो हम सफल हो सकेंगे।

जो होता है वह करने से या संकल्प से करना शुरू होता है। काम संकल्प से ही होता है। करने से हीसारी रचनाएं हुई हैं। दृढ़ संकल्प धुंधला होकर इच्छा हो जाती है। होना अस्तित्व है,क्रिया संकल्प है। मानव में आत्मा है, शब्द प्रमाण हैं। जीवन व्यवहार मुक्ति विकास के लिए प्रवृत्ति मार्ग हैं। हम शरीर, मन,प्राण, आत्म तत्व सभी हूं। सारे उपनिषद यही बोलते हैं। निवृत्ति मार्ग, कर्मयोग का मार्ग सन्यास का मार्ग है। शंकराचार्य से लेकर सभी प्रगतिशील रहे हैं। सन्यास विरक्ति का अनुभव है जगत हित करते का, मोक्ष प्राप्त करने का। अशुद्धि को दूर करते करते शरीर में बंधे रहें।आत्म तत्व को स्वस्थ, कुशल, परिश्रम व परिचर्या करना है। परम तत्व में ही हमारा मन रमे। शुद्ध उपनिषद आत्म शब्द का प्रयोग करते हैं। हमें अपनी शब्दावली में साफ होना चाहिए।कोरोना त्रासदी से उदासीन हुई शिक्षा व्यवस्था से ऐसी ही प्राथमिकताओं की दरकार है।

प्रो. अमर सिंह,
मोटीवेटर प्राध्यापक अंग्रेजी,
शासकीय महाविद्यालय चांद,
जिला छिंदवाड़ा,