जिले की ऐतिहासिक विरासत देवगढ किला….

जिले की ऐतिहासिक विरासत देवगढ किला….

देवगढ राज्‍य की ऐतिहासिक पृष्‍ठभूमि:-

देवगढ़ सतपुड़ा की वादियों में छिंदवाड़ा से 37 किलोमीटर दूर स्थित एक गौरवशाली ऐतिहासिक राज्य का केंद्र रहा है जिसका प्रादुर्भाव वर्तमान बैतूल जिले के खेरला राज्य से माना जाता है यद्यपि कुछ इतिहासकार इसे ‘’गढामंडला’’ से जोड़कर भी देखते हैं तथा संग्रामशाह (1480 से 1530 ई0) के द्वारा देवगढ़ राज्य की स्थापना मानी जाती है परिशियन इतिहासकार फिरिश्ता द्वारा उल्लेखित है कि सन 1398 ई0 में खेरला के राजा नरसिंगराव जो कि अपार धन संपदा और शक्ति का स्वामी था, के द्वारा गोंडवाना क्षेत्र के सभी राजाओं को जीत लिया था।

यद्यपि इस तथ्य को भी कम करके नहीं देखा जा सकता है, जिसमें संग्रामशाह का शासन वर्तमान दमोह सागर से लेकर नर्मदा घाटी क्षेत्र भोपाल तक एवं सिवनी सतपुड़ा के क्षेत्रों तक रहा था। संग्रामशाह की मृत्यु सन 1530 ई0 में होने के बाद उसके पुत्र दलपत शाह की भी मृत्यु (सन 1548 ई0) में होने के बाद ‘’गोंडवाना’’ साम्राज्य गौरवरानी दुर्गावती के अव्यस्क पुत्र नारायण शाह के संरक्षक के तौर पर लगभग 16 वर्ष तक  सुदृढ़, सक्षम और लोक कल्याणकारी शासन किया जाता रहा। दिल्ली की सत्ता में सन 1526 ई0 से अकबर का शासन निरंतर दृढ़ होता आ रहा था। वर्ष्‍1564 ई0 में आसफखॉ जोकि अकबर  का सिपेहसलार था, के द्वारा रानी दुर्गावती के ऐश्वर्य और ख्याति को सुनकर राज्‍य पर आधिपत्य प्राप्‍त करने की नियत से हमला किया। रानी द्वारा विशाल मुगल सेना का वीरता से मुकाबला करते हुए अपने प्राण निछावर कि यद्यपि इसके बाद भी लगभग 25 वर्षों तक गड़ा मंडला के शासक कुछ सीमाओं के साथ शासन करते रहे, किंतु इस चुनौतीपूर्ण स्थिति का लाभ उठाते हुए दो गवली सामंत  रनसूर  धनसूर ने देवगढ़ की सत्ता हथिया ली और स्वतंत्र राज्य की घोषणा कर दी संयोग से यह साल 1560 ई0 ही था  इन गवली सरदारों ने अपने आप को गड़ा मंडला  से स्वतंत्र किया था।

देवगढ़ एक शक्ति केंद्र के रूप में प्रादुर्भाव का श्रेय जिस जाटवशाह (1570से 1620 ई0) के जन्म एवं राज्‍य प्राप्‍त करने की कहानी रहस्य पूर्ण है। सन 1907 ई0के जिला छिंदवाड़ा के गजेटियर जिसका संकलन आईसीएस ऑफिसर आर व्‍ही रसैल ने किया था मैं इसका हवाला है कि जाटवा जो कि गोंड राजवंश का निर्माता था इसका जन्म एक कुवारी मां से हुआ था वह असाधारण शक्ति का स्वामी था युवावस्था में कार्य की खोज में वह रनसूर  धनसूर गवली सरदारों के पास नौकरी करने पहुंचा अपनी असाधारण वीरता से उसने सैनिकों में अलग स्थान बनाया उसकी क्षमता से भयभीत होकर किसी बहाने से उसे समाप्त करने की दृष्टि से दिवाली के दूसरे दिन होने वाले देवीय की परंपरागत पूजा में देवी को बली देने हेतु लकड़ी की तलवार से भैसा का वध करने का आदेश दिया। ऐसी विसंगत स्थिति में भी जाटवा ने भैंसा का तो वध किया ही साथ ही दोनों गवली भाइयों रनसुर धनसुर का भी वध कर करते हुए गौड राजवंश की देवगढ़ में नीव डाली‘’आईने अकबरी’’ में उल्लेखित है कि जाटव शाह के पास अपनी सुव्यवस्थित सेना थी वह उसके पास 2000 घुडसवार 50000 पैदल एवं 100 से ज्यादा हाथियों से सुसज्जित सेना थी। जाटवा एक कुशल शासक था उसने 50 वर्ष के अपने शासनकाल में राज्य का पर्याप्त विस्तार किया जिसमें नागपुर और छिंदवाड़ा भी शामिल था।

जाटवा न केवल देवगढ़ के किले का निर्माण कराया साथ ही पाटन सावंगी और नागरधन विदर्भ के इन मुख्यालय को बसाया सन 1620 ई0 में उसकी मृत्यु के पश्चात कोकशाह उनका पुत्र सत्तासीन हुआ सन 1640 ई0 में उसकी मृत्यु के पश्चात कोकशाह का पुत्र जाटवा द्वितीय ने देवगढ़ का राज्‍य संभाला जाटवाशाह द्वितीय की मृत्यु सन 1657 ई0 में हुई। उसका पुत्र कोकशाह द्वितीय विलासी प्रकृति का राजा था यद्यपि उसका शासन लगभग 30 वर्षों तक रहा। सन 1687 ई0 में उसकी मृत्यु के पश्चात वख्‍तशाह ने राज्य का शासन संभाला किन्‍तु भाइयों की आपसी लड़ाई में उसके दूसरे भाई दीनदारशाह ने अपदस्थ कर राज्‍यकी सत्ता अपने हाथों में ले ली। विवश होकर वख्‍तशाह ने दिल्ली के केंद्रीय शासन में औरंगजेब से सहायता चाही। इस्लाम धर्म स्वीकारने के बाद ही ‘’वख्‍त बुलंद’’ की उपाधि प्रदान की गई, उसने मुगल सैनिक की टुकड़ी की मदद से देवगढ़ के राज्य में पुन: राज्‍य अधिकार प्राप्त कर लिया। वर्तमान में देवगढ़ का किला एवं अन्य संरचनाओं का स्वरूप जो हम देखते हैं उसे विशेषज्ञों ने वख्‍त बुलंदशाह द्वारा परिमार्जित कर मुगल शैली एवं स्थापत्य की अनुरूप किया जाना स्वीकारा है। अपने अंतिम समय में जब औरंगजेब की स्थिति मराठों से निरंतर होने वाले युद्ध से लगातार कमजोर होती जा रही थी, तब वख्‍तबुलंद ने देवगढ़ को स्वतंत्र राज्‍य घोषित कर लिया था। यह भी माना जाता है कि कालांतर में वख्‍तबुलंद ने पुन: हिंदू धर्म को स्वीकार कर लिया था। वख्‍तबुलंद काशासन (सन 1687 से 1710 ई0) तक माना जाता है।

वख्‍तबुलंदशाहकी मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र चांद सुल्तान उसका शासन (सन1735 ई0) तक रहा ,जब चांद सुल्तान की म़़ृत्‍यु के बाद उसके वारिश मीरबहादुर की चांद सुल्तान के दासी पुत्र द्वारा छलपूर्वक हत्या करवा दी गई तब यवतमाल (महाराष्ट्र) के शासक रघुजी भोसले की मदद से चांद सुल्तान की मृत्‍यु से व्यथित रतन कुंवर ने बदला लेते हुए पुन: शासन की बागडोर प्राप्त की थी किंतु इसके बाद निरंतर शासन की कमान रघुजी भोसले के हाथों में जाती रही। रघुजी भोसले के परामर्श से रानी रतन कुंवर ने अपने पुत्र राज्य के वारिस बुरहान शाह के साथ नागपुर में ही रहने लगी थी। सतारा राज्‍य के पेशवा से नज़दीकियां के कारण रघुजी भोसले निरंतर अपने आपको मजबूत करते चले गए। धीरे-धीरे देवगढ़ की केंद्रीय सत्ता क्षीण् होती चली गई।

 देवगढ राज्‍य की(बावली) जलसंरचना:-

1-जल के प्रति दूरदर्शिता :- देवगढ राज्‍य मे जब जाटवाशाह और वख्‍त बुलंदशाह के शासनकाल में जब राज्य का अपरिमित विकास हो रहा था ! राज्‍य की इतनी बडी सेना हो तो उस समय के देवगढ नगर की कल्पना की जा सकती है कि वहां देवगढ़ किले के आस-पास विस्तृत क्षेत्र में राज्य के नागरिक एवं सेना का निवास रहा होगा।राज्य के नागरिक एवं सेना की जलापूर्ति सुविधापूर्वक मिले इस दृष्टि से राजा जाटवाशाह ने देवगढ नगर तथा आप-पास के क्षेत्र में अनेक कुंऐ एवं बावली बनवाई। जनश्रुति मे यह प्रचलित है कि देवगढ में ‘‘800 कुंऐ एवं 900 बावली’’ थी। इनका निर्माण कब किया गया इस प्रश्न पर कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है लेकिन देवगढ़ रियासत के समानांतर इन्हें  सोलहवीं सदी का माना जाता है।

2-बावली का महत्व :-  ग्रीष्मकाल में भी जल आपूर्ती बाधित न हो तथा निरंतर बनी रहे इस दृष्टि से धरातलीय जल संरचना की जानकारी लेकर इन कॅुओ एवंबावली जिनमे सीढिंया बनी होती है अर्थात सीढींदार कुंडो को बावली या बावड़ी कहते है। इनमें सीढियों से उतरकर नीचे जलस्रोत तक पहुंचा जाता है। जलप्रबंध की यह प्राचीन परम्परा है, संस्कृत की प्राचीन साहित्य में इन्हे वापी नाम कहा गया हैं। वास्तु ग्रंन्थो में वापियों (बावली) के निर्माण का महत्व, तकनीकि नापजोख, निर्माण के प्रकार, उपयोग आदि बतलाये गये है। वास्तुषास्त्र के अनुसार बावलिया चतुषकोणीय, वर्तुल, गोल या दीर्घ प्रकार की हो सकती है। इनके प्रवेश्‍ से मध्य भाग तक पत्थरो अथवा ईटों से पक्का और ठोस निर्माण होता है। जिसके ठीक नीचे जल होता है जो प्रायः भूगर्भीय जल प्रवाह से जूड़ा होता है। एक से अधिक मंजिल मे निर्मित बावलियों में अनेक दरवाजे, सीढियां, दीवारे तथा आलिये बने होते है। जिनमें बेलबुटों, झरोखो, मेहराब आदि का अंतर होता है।

3-कुंऐ :- जनश्रुति अनुसार 800 कुंऐ में से अभी तक 14 कुंऐ चिन्हित हो पाये। इनमें 02 प्रकार के कुंऐ मिले है। 01 चौकोर कुंऐ 02 गोल कुंऐ।

चौकोर कुंऐ:-चौकोर कुंऐ का आकार आयताकार, 4 वाई 3 फीट का है। कुंऐ की गहराई लगभग 40 फीट है कुऐ के अन्दर की प्लास्टर आज भी अच्छी हालत में है। इन सभी कुंऐ में जलस्तर ग्रीष्मकाल में भी बना रहता है।

गोल कुंऐ:- गोल आकार के कुंऐ का व्यास साढ़े तीन फिट का है। कुंऐ की गहराई लगभग 40 फिट है कुऐ के अन्दर की प्लास्टर आज भी अच्छी हालत में है। इन सभी कुंऐ में जलस्तर ग्रीष्मकाल में भी बना रहता है।

कुंऐ कम संख्या में मिलने का मुख्य कारण यह लगता है कि इन कुंऐ का आकार बहुत छोटा है अतः यह कुंऐ घास-फूस और मिट्टी से भर गये इसलिये इनकी जानकारी कम मिल पा रही हैं।

4-देवगढ की बावली :- जनश्रुति में अक्षुण्य देवगढ में ‘‘800 कुंऐ एवं 900 बावली’’ की कहावत को आधार बनाकर जिला प्रशासन छिन्दवाडा ने दिसम्‍बर 2019 से इन बावलियों एवं कुंओ की खोज करवाना प्रारंभ किया। इस क्षेत्रो मे बावलियो की घनी श्रृंखला पाते हैं 10 वर्ग किलोमीटर के क्ष्‍ेात्र में लगभग 55 बावलिया एवं 14 कुंऐ जोकि काफी क्षतिग्रस्त हालत में पाए गए हैं।

बावलियों में स्थापत्य कला की दृष्टि से कुछ में आर्च व आलिये मिले, कुछ में ज्यामिति संरचना अनुसार सुव्यवस्थित सीढिंया मिली है। बावलिया का आकार सामान्यतः आयताकार है, 06 से 10 प्रकार की बावलिया मिली है। ये बावलिया कही तो छोटी है, तो कही बड़े आकार की भी है।देवगढ के तत्कालीन राजाओं ने इतनी सिद्दत से जो जलसंरचनाऐं बनायी थी निश्‍चय ही उनके जल के प्रति आकर्षण, समर्पण तथा महत्व को रेखांकित करती है।

5देवगढ की बावलियों का जीर्णाद्धार :- जिले की ऐसी विरासतीय जलसंरचनाओं को पूर्नजीवित कर जनाउपयोगी बनाये जाने हेतु जिले द्वारा देवगढ के आस-पास 55 बावलियोंको चिन्हांकित किया गया है।इन बावलियों का पानी के जल परीक्ष्‍ाण भी कराया गया, जिसमे पाया गया कि अधिकांश बावलियों का पानी आज भी पीने योग्‍य है । माह मई 2020 के मध्‍य से इन चिन्हित बावलियों की साफ-सफाई कराकर बावलियो का जीर्णाद्धार मनरेगा योजना के तहत करवाना प्रारंभ किया गया जिससे स्थानीय श्रमिको को रोजगार के साथ ही जिले की विरासत इन बावलियों का सरंक्षण भी किया जा सकें । प्रथम चरण मे जिले की 7 प्राचीन बावलियों के मरम्मत/ जीर्णाद्धार का कार्य प्रांरभ किया गया जो कि लगभग भौतिक रूप से पूर्ण हो गया है, एवं द्वितीय चरण मे 13 बावलियो का कार्य प्रगतिरत है इन प्राचीन बावलियों का मरम्मत/ जीर्णाद्धार कार्य इस प्रकार से किया जा रहा जिससे उनके मूल स्वरूप और संरचना मे किसी प्रकार का कोई परिवर्तन न हो। इस कार्य के लिये कन्जर्वेशन आर्किटेक्चर से भी तकनीकी मार्गदर्श्‍न लिया जा रहा है और उनके निर्देशानुसार ही कार्य किया जा रहा । उक्त कार्यो की मरम्मत/ जीर्णाद्धार के पश्‍चात उक्त जलसंरचनाऐ पुनः जीवित हो जावेगी साथ ही अपार जल राशि का संचयन किया जा सकेंगा ओर जलसंरक्षण के क्षेत्र मे एक ऐतिहासिक और आने वाली कई पीढिंयों की धरोहर के रूप मे सदैव याद किया जाता रहेगा…. राकेश प्रजापति